गुरुदास: परम पूज्य गुरुदेव, जैसा कि माना जाता है कि भावनाए प्रभु के पास जाती हैं या भक्ति का मार्ग बनाती हैं तो भावनाएं रोगों का आधार कैसे होती हैं? कृपया इस रहस्य को स्पष्ट करें।

परम पूज्य गुरुदेव : यह प्रश्न जगत के लिए अत्यन्त कल्याणकारी है। इसे समझने के लिए काफी समय और बहुत से आयामों की आवश्यकता है। इसका अर्थ इतना गहन है जितना समुद्र की गहराई। इसको समझने के लिए शांत चित्त और मन से पार की अवस्था चाहिए, भावनाओं की अवस्था चाहिए। इस जगत में जितने भी कार्यकलाप हो रहे हैं, झगड़े हो रहे हैं, युद्ध हो रहे हैं वे सब भावनाओं पर आधारित हैं।

सभी धर्म यह मानते हैं कि परमात्मा एक है। हिन्दू कहता है एक परमात्मा है, मुसलमान कहता है एक अल्लाह है, सिख कहता है एक ओंकार है और ईसाई कहता है एक गॉड है। जो परमात्मा को नहीं मानते वो भी कहते हैं कि एक तत्व है जिससे यह सारा जगत चल रहा है। उसको चाहे प्रकृति का नाम या परमात्मा का या तत्व का।

वैज्ञानिक भी एक तत्व को स्वीकारते हैं जो इलेक्ट्रान, प्रोटान व न्यूट्रान का निर्माता है, उसका संचालन करने वाला है। आप यह जानकर हैरान हो जाएंगे कि एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति में आज जितनी औषधियां हैं उनमें से नब्बे प्रतिशत औषधियां मन पर अटैक करती हैं जिससे मन के भाव लोप हो जाएं और व्यक्ति रोग से मुक्त हो जाए।

गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो अच्छे कर्म हैं वे सोने की बेड़ी हैं, जो बुरे कर्म हैं वे लोहे की बेड़ी हैं। किसी कैदी को अगर आप जेल में डाल दें और हाथ-पैरों में हीरे जवाहरात की बेड़ियां डाल दें तब भी वह बंधा हुआ है। तब भी वह कैदी ही है। इसी तरह अगर किसी कैदी को लोहे की बेड़ियां डाल दी जाएं तब भी वह कैदी है। ऐसे ही यह जगत भावनाओं से बंधा हुआ है। लेकिन यथार्थ भावनाओं से परे है। अगर व्यक्ति को भावनाओं से पार जाना आ जाए तो सारे धर्म समाप्त हो जाएंगे, सारे युद्ध समाप्त हो जाएंगे। बस एक तत्व रह जायेगा।

आज मनुष्य मानसिक रूप से इतना विक्षिप्त व परेशान है कि अपनी भावना को प्रसन्नता देना चाहता है, वह अपने मन को कुछ समय के लिए संतुष्टि देना चाहता है। अपनी संतुष्टि का उपाय सिगरेट, पान-सुपारी और नाना प्रकार के नशे आदि में ढूंढ़ता है। लेकिन आप यह जानकर हैरान होंगे कि इस जगत में ऐसा कोई उपाय कारगर नहीं हुआ। हमारे वैज्ञानिकों ने ब्रह्मांड की खोज कर ली। चांद पर पहुंच गए और न जाने किस-किस ग्रह पर पहुंच गए। हो सकता है वे कल सूर्य पर भी पहुंच जाएं, जहां पहुंचना संभव नहीं है। लेकिन वैज्ञानिकों ने ऐसी कोई खोज नहीं की जिससे पहने मन पर नियंत्रण कर सकें। व्यक्ति जितना सुख पा रहा उतना ही दुःख पायेगा। परिवार में जो सदस्य आपको जितना सुख दे रहे हैं उतना आपको दुःख देंगे, यह निश्चित है। जितना दिन होगा उतनी रात होगी। भगवान श्रीकृष्ण, सद्गुरु नानकदेव जी, हजरत मुहम्मद, ईसा मसीह आदि संतों ने इस जगत को खेल कहा है। इस जगत को माया कहा है।

जब कोई तत्त्ववेत्ता संत किसी व्यक्ति को मिल जाता है तो वह उसे भावनाओं से परे ले जाता है। और जब व्यक्ति मन से परे जाने की अवस्था को जान लेता है तो समस्त रोगों से मुक्ति पा लेता है।

इस जगत में भक्ति भावनाओं से ही है। इसलिए भावना कितनी अच्छी चीज होगी क्योंकि वो भक्ति का निर्माण कर रही है उससे हमारे में भक्ति आ गई है। हमारा जगत में प्रेम हो रहा है। यह सत्य है कि भक्ति भावना से बनती है। भावना से भक्ति का निर्माण होता है। जैसे हम किसी रास्ते में जा रहे हैं तो हम कोई वाहन लेकर जाते हैं और वाहन के द्वारा हम उस मंजिल पर पहुंचते हैं। जब भी हम किसी मंजिल पर पहुंच जाते हैं तो वाहन की आवश्यकता नहीं रहती । जैसे कोई डॉक्टर ऑपरेशन कर रहा है। वह औजारों के द्वारा ऑपरेशन करता है। अगर वो डॉक्टर उस रोगी पर औजार चलाता ही रहे तो रोगी की मृत्यु हो जाएगी। ऐसे जो भक्ति है यह भी एक मार्ग है, एक वाहन है, एक साधन है।

भावना हमारे लिए वाहन है। यह हानिकारक भी है और कल्याणकारी भी है। इसके अर्थ को समझने के लिए बड़ी गहनता और शांति की आवश्यकता है। यह बड़ा क्रांतिकारी, बड़ा विस्फोटक और आनंददायक प्रश्न है। इसको समझने के लिए प्रभु की परम कृपा की आवश्यकता है। तभी इसके उत्तर को गहन रहस्यों को मानव समझ सकता है।

गुरुदास : परम पूज्य गुरुदेव, अगर पति निर्मल भावना का नहीं है और स्त्री पति कल्याण के लिए उस घन को चोरी से छुपा रही है, उसकी भावना में कोई अशुभता नहीं है तो क्या वह रोगों का शिकार होगी?

परम पूज्य गुरुदेव : यह प्रश्न बहुत से लोगों का हो सकता है। अगर किसी व्यक्ति की भावना शुद्ध है, उसके हृदय में किसी के प्रति प्रेम है तो यह उसी तरह है जैसे किसी को अगर प्रेम से आग लगाएंगे तो आग का काम है जलाना, वह जलायेगी। अगर कोई व्यक्ति नदी से प्रेम करेगा और उसका किसी के प्रति कोई द्वेष नहीं है फिर भी यदि किसी को नदी में डुबोएगा तो वह आदमी डूबेगा । जितने भी चोर हैं वे जब चोरी करते हैं तो यही सोचते हैं कि अगर मैं इससे एक हजार रुपया ले भी लूंगा तो क्या फर्क पड़ेगा? मेरे बच्चे पल जाएंगे या मैं ऐसे हजारों आदमियों से हजार-हजार रुपया चोरी करके गरीबों का कल्याण करूंगा। जितने भी गलत कार्य करने वाले हैं उन्होंने कोई न कोई ऐसा तर्क रखा होता है जिससे वे चोरी या गलत काम करके मन को समझाते हैं।

जो स्त्री यह सोचेगी कि मेरा पति जैसा भी है प्रभु कृपा से है क्योंकि पति या पत्नी से प्रभु अधिक शक्तिशाली है। प्रभु की कृपा का न पति को पता है न पत्नी को। यदि पति भी पत्नी से चोरी करेगा तो पति को भी ऐसा रोग भुगतना पड़ेगा जैसा पत्नी को है।

यह नियम पति या पत्नी का नहीं है। जो भी व्यक्ति गलत कार्य करेगा वो चाहे पति-पत्नी, माता-पिता, गुरु-शिष्य, पुत्र-पुत्री कोई भी हो उसे रोग से ग्रस्त होना पड़ेगा। यह सृष्टि के चिकित्सक नहीं जान सकते। मनौवैज्ञानिक नहीं जान सकते। यह सूक्ष्म जगत है, इसे संत जान सकते हैं। इसे ऋषि जान सकते हैं। यह वैज्ञानिक जगत से परे की बात है। वैज्ञानिक जो एक दवा पहले बना चुके हैं उसे छुड़ाने के उपाय ढूंढ़ते हैं। क्योंकि वे दवाइयां इतनी हानिकारक हैं। उनके साइड इफेक्ट इतने हानिकारक हैं। लेकिन जो संत-ऋषि हैं उन्होंने एक बार जो कह दिया वो कभी बदलता नहीं है। वह सृष्टि का सत्य होता है। जैसे आयुर्वेद हजारों सालों से बना है यह वैसे का वैसा ही है। लेकिन एलोपैथिक साइंस सदा बदलती रहती है। जो बदल जाए वह सत्य नहीं होता।

यदि स्त्री ऐसा तर्क करती है कि मेरा पति ठीक नहीं है, जुए में हार जायेगा, शराब पीता है या कोई ऐसा काम करता है, मुझे अपने बच्चों का भविष्य बनाना है या बेटी की शादी करनी है तो वह बेटी भी सुखी नहीं रहेगी। अगर वह प्रभु पर छोड़ देगी कि प्रभु मैं तेरे पर छोड़ रही हूं और प्रभु की भक्ति करेगी तो पत्नी में ऐसी शक्ति है कि वह शराबी, जुआरी पतियों को भी ठीक कर देगी। जिस पति को उस प्रभु ने पैदा किया है वह परमात्मा उस स्त्री की भक्ति से उस पति को ठीक भी कर सकता है। परमात्मा से कोई बात छुपी नहीं है। जो स्त्री या पुरुष ऐसा सोचता है कि यह चोरी कर रही हूं या छिपा रही हूं या धन मेरे पति, बच्चों के काम आयेगा। ऐसा सोचने वाला दोगुना दोषी होगा और उसे रोगों से मुक्ति नहीं मिलेगी, यह सृष्टि का नियम है।

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